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महाकवि निराला जी का आगमन ऋतुराज बसंत की तरह धरती पर हुआ था।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जयंती/विशेष

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निराला जी महामानव के रूप में भारत भूमि पर अवतरित हुए, उनके अंदर अंत तक जीवन ही जीवन व्याप्त था। हृदय में अनंत गतिशीलता थी और वाणी में अद्भुत ओज था। उनमें आंधी की गति थी। जैसे एक व्यक्ति ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी छोड़कर छलांग लगाता चलता है ऐसे ही वे डायनामिक पर्सनालिटी के धनी थे। वह स्वयं अपने को “चंचल गति सुर सरिता” कहते थे। मानवीय मर्यादा के विरुद्ध किसी भी बड़े से बड़े व्यक्ति का डट कर विरोध करने में वे कभी चूकते नहीं थे। यद्यपि उनका हृदय फूलों के पराग से भी कोमल था। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, कोमलकांत, माधुर्य गुण से ओतप्रोत थी। किंतु अन्याय और विषमता देखकर वह इतने क्रोधान्ध हो उठते थे कि उनकी “कुकुरमुत्ता” कविता में “गुलाब” को फटकार लगाते हुए वह बाजार की भाषा का इस्तेमाल करते हुए भी चूकते नहीं थे। यथा – अबे सुन वे गुलाब,भूल मत गो खुशबू, रंगो आब। खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट। कवि की यही व्यवहारिक भाषा 1935 की रचना “वह तोड़ती पत्थर” में दिखलाई पड़ती है जिसमें एक मजदूर नी की व्यथा-कथा का इतना गहरा मार्मिक चित्रण है कि कविता के अंत में कवि श्रमिका के साथ इतना एकाकार हो उठता है कि उससे एकजुट होकर कहता है – “मैं तोड़ती पत्थर”।निश्चित ही वे युगान्तकारी कवि थे। उनकी 1916 लिखी – “जूही की कली” की कविता आज भी छायावाद की श्रेष्ठतम कविता में गिनी जाती है। उनकी काव्यसाधना निरंतर 1958 तक चलती रही। शोषण के विरुद्ध विद्रोह और और मानव के प्रति एकजुटता उनके काव्य का मूल स्वर है।निराला जी की भिक्षुक कविता – “वह आता, पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, साथ में दो बच्चे भी हैं…… यानी परदादा, दादा, पापा के जमाने से इन्सान के एक ही नहीं, दो नन्हें फरिश्ते क्या भीख माँगने पर ऐसे ही लाचार रहेंगे ? जबकि समकालीन युग में शिक्षा के अधिकार का कानून 1 से 14 साल तक फ्री और अनिवार्य (कक्षा 1 से 8) तक की शिक्षा की गारंटी देता है। भिक्षुकों के इसी त्रासद चित्र में निराला जी कहते हैं – “दाता भाग्य विधाता से क्या पाते ? यही कि बच्चे झूठी पत्तल चाट रहे हैं साथ ही कुत्ते भी उनकी ओर झपट रहे हैं “। भूख के माध्यम से मनुष्य और जानवर एक साथ खड़े हुए हैं। इस त्रासद स्थिति का खात्मा रामराज्य की स्थापना से ही हो सकता है। बशर्ते भगवान राम की तरह न्याय और समता आधारित फिर से संघर्ष की विजयांतक परिणिति हो जाए।अपनी प्रख्यात “बादल राग” कविता में नवक्रान्ति उत्पन्न करने के लिए मानवों के हृदयों में उथल-पुथल मचाने का आग्रह जलधर से करते हैं – समाज में विषमता उत्पन्न करने वाले, विश्व वैभव को लूटने वाले मायामय विश्व आँगन में वे विप्लवकारी गर्जन करते हुए जीर्ण-शीर्ण किसानों की दयनीय स्थिति पर आँसू बहाते बादल से कवि अनुरोध करता है तुम तो विप्लव के वीर हो देखो बेचारे कृषकों का समस्त सारभाग शोषकों ने चूस लिया है। इनके शरीर में हाड़मात्र शेष रह गये हैं। अत: इन्हें नवजीवन देने के लिए अवश्य बरसो। वीणापाणि माँ सरस्वती का आराधन करते हुए विनय करते हैं कि भेदभाव और छलकपट की कलौंच पर्त दर पर्त दिल के कोनों में दुबक गई है। इसे जैसे भी हो निकाल बाहर करने के लिए अपनी आलोकवृष्टि करती रहें।

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