गांधी मेडिकल कॉलेज के बायोकेमिस्ट्री विभाग ने जीएमसी बायोकॉन कार्यशाला का आयोजन किया। यह कार्यक्रम ‘एडवांस्ड फर्टिलिटी केयर: ए मल्टीडिस्पिलनरी अप्रोच’ विषय पर केंद्रित था, जिसमें देशभर के प्रतिष्ठित चिकित्सा विशेषज्ञों और शिक्षाविदों ने भाग लिया।
इस दौरान विशेषज्ञों ने कहा कि बांझपन एक समस्या है, लेकिन इसके कई कारण होते हैं जिनकी सही पहचान केवल जांच से ही संभव है। इस कार्यशाला का उद्देश्य भी बांझपन से संबंधित आधुनिक जांच पद्धतियों, उपचार तकनीकों और जैव-रासायनिक विश्लेषण से जुड़े नए उपकरणों व विधियों से प्रतिभागियों को परिचित कराना था।
क्लीनिकल केयर तक सीमित न रहे इलाज
जीएमसी के बायोकेमिस्ट्री विभाग की डॉ. अनुराधा राठौर जैन ने बताया कि फर्टिलिटी से जुड़ी समस्याएं आज भी सिर्फ क्लीनिकल केयर तक सीमित हैं। जबकि कई पैथोलॉजी और बायोकेमिस्ट्री लैब की जांच समस्या के मुख्य कारण का पता लगा सकती हैं, जिससे इलाज में मदद मिलती है। बांझपन के मामलों में एक बड़ा कारण हार्मोनल डिस-बैलेंस होता है। इसकी पहचान के लिए जीएमसी में इम्यूनोअसे एनालाइजर मशीन मौजूद है। यदि इसके प्रति जागरूकता बढ़े तो अधिक लोगों की जांच संभव हो सकती है।
कम आयु में मोटापा है खतरे का संकेत
गांधी मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ एंडोक्रोनोलॉजिस्ट डॉ. मनुज शर्मा ने कहा कि नियमित योग व फिजिकल एक्टिविटी से आप स्वस्थ रह सकते हैं और बांझपन जैसी समस्याओं से बच सकते हैं। पहले लोगों में मोटापा मध्य आयु के बाद बढ़ता था, लेकिन अब बदलती जीवनशैली के कारण यह समस्या कम उम्र में ही दिखने लगी है। यह फैक्टर्स दिल की बीमारियों, मधुमेह और बांझपन जैसी समस्याओं को बढ़ा रहे हैं।

बांझपन की वजहें जानने में हिस्टेरो लैप्रोस्कोपी सबसे असरदार जीएमसी डीन डॉ. कविता एन. सिंह ने कहा कि हिस्टेरो लैप्रोस्कोपी (DHL) तकनीक महिलाओं में बांझपन की वजह पता लगाने का सबसे भरोसेमंद तरीका है। यह जांच एक साथ गर्भाशय, अंडाशय और फैलोपियन ट्यूब से जुड़ी समस्याओं का पता लगाती है और कई मामलों में तुरंत इलाज भी कर सकती है।
उन्होंने बताया कि एक स्टडी 34 महिलाओं पर की गई, जिनमें 74% महिलाओं को पहली बार मां बनने में दिक्कत (प्राथमिक बांझपन) थी, जबकि 26% महिलाओं को पहले बच्चे के बाद गर्भधारण में समस्या (द्वितीयक बांझपन) थी। इसमें पाया गया कि 42% महिलाओं में पेरिटोनियल समस्याएं, 32% में गर्भाशय संबंधी दिक्कतें, 6% में ट्यूब ब्लॉकेज और 3% में अंडाशय की समस्याएं थीं।
क्यों असरदार है यह तकनीक डॉ. सिंह के अनुसार, अक्सर सामान्य अल्ट्रासाउंड (USG) से कुछ समस्याएं पकड़ में नहीं आती, जबकि हिस्टेरो लैप्रोस्कोपी से उनका आसानी से पता लगाया जा सकता है। यह एक सुरक्षित और डे-केयर प्रक्रिया है, यानी मरीज को लंबे समय तक अस्पताल में रुकना नहीं पड़ता। इस तकनीक से सही समय पर बीमारी का पता लगाकर इलाज करने से मां बनने की संभावना काफी बढ़ जाती है।