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संत महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने महाकाव्य ‘ मूक माटी ‘ में सर्वत्र मुखर माटी को जाना पहचाना है।

आचार्य विद्यासागर जी महाराज के समाधिस्थ होने पर सादर विनयांजलि

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युगपुरुष आचार्य विद्यासागर द्वारा प्रणीत “मूक माटी” महाकाव्य युगान्तकारी कृति है। अत: मूलत: वे ऐसे कवि रहे हैं जो हर समय मानवता की मातृभाषा बोलते रहे हैं। उपनिषद के महावाक्य में कहा गया है – कविर्मनीषी परिभू: स्वयभू । यथा तथ्यतोsथार्न व्यदधात – शाश्वतीभ्य: समाभ्य : – अर्थात कवि 1- मन का स्वामी, 2- विश्व प्रेम से भरा हुआ, 3- आत्मनिष्ठ, 4 – यथार्थभाषी, 5- शाश्वत काल पर दृष्टि रखने वाला होता है। समुद्र जैसे सब नदियों को अपने उदर में समा लेता है, उसी प्रकार समस्त ब्रह्मांड को अपने प्रेम से ढक ले इतनी व्यापक बुद्धि आचार्य श्री की वाणी में पग पग पर एक सच्चे कवि होने के नाते दृष्टिगोचर होती रही है। काव्य का लक्ष्य विश्व का कल्याण है। उसका उद्देश्य दुनिया को प्रतिबिम्बित करना नहीं उसे सुधारना है। वह यथार्थ का दर्पण नहीं है बल्कि अनुभव का पुनर्निर्माण है। केवल ‘ही’ नहीं , बल्कि ‘भी’ – भी करुणावतार विद्यासागर की दोनों आँखों के तारे रहे है, जो सर्वसमावेशी सम्यक दृष्टि से ओतप्रोत हैं। निसन्देह ऐसे संत भगवान के अवतार हैं। समाज की आंखें है, धर्म के सूर्य हैं। और सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है कि मनुष्य को समस्त बाधाओं से मुक्त किया जाये जिससे कि बिना शर्त वे एक दूसरे से प्रेम करना अब और देर किये बिना सीख लें।

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