Kundalpur Maha Mahotsav 2022: रथोत्सव परंपरा में गजरथ का महत्व
साक्षात् अर्हंत भगवान अब नहीं है। के वली अवस्था में भव्य जीवों के कल्याण के लिये इस वसुंधरा पर श्री जिनेंद्र का विहार हुआ था। उसी श्री विहार का स्पति प्रभावना बढ़ाने के लिये प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को विराजमान करके पंचकल्याणक स्थल पर प्रतिष्ठापित वेदिका पंडाल को सात परिक्रमा लगाई जाती है अथवा नगर के मार्गो पर रथ निकाला जाता है। वैसे भगवान को पालकों को मनुष्य श्रद्धाभाव से कंधो पर रखकर निकालते हैं या फिर रथ में विराजमान कर रथ को अपने हाथों से खीचते है या फिर खींचने के लिये वृषभ (बेल), अश्व (घोड़ा), अथवा गज (हाथी) को रथ में लगाते हैं। इन तीनों में गज का महत्व सर्वश्रेष्ठ है। हाथी की अनेक विशषताये हैं, जिनमें प्रमुख रुप से वह शौर्य, पराक्रम और अद्भुत बल का प्रतीक है।
चाल उसको प्रशस्त माना गया है। शुद्ध साविक शाकाहारी हैं ज्योतिष शास्त्र में उसका दर्शन शुभ माना गया है। सम्राटों की सवारी में हाथी की सवारी श्रेष्ठ मानी जाती है। चक्रवती के चौदह रत्नों में एक हाथी रत्न भी है। स्वर्गाधिपति सोधर्म इंद्र का प्रमुख वाहन ऐरावत हाथी है। इसी ऐरावत पर आरुढ़ होकर वह भगवान के प्रत्येक कल्याणक मनाने के लिये आता है और बालक प्रभु तीर्थंकर को उसी ऐरावत में ले जाकर सुमेरु पर्वत पर अभिषेक करता है। 16 स्वप्नों के बाद भगवान की माता अपने मुख में प्रवेश करते हुए गज को देखती हैं।
स्वपन फल विचार के अनुसार यह इस बात का संके त देता है कि अनंत बल के धारी तीर्थकर प्रभु का गर्भ में अवतरण ( आना) हो गया है जो पुत्र माता के गर्भ में आ रहा है वह अपराजेय शासक होगा। भारतीय संस्कृति में आराध्य देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ हस्ती के कलश लिए हुए दिखाया गया है। मंदिर के मुख्यद्वार या मूर्तियों के परिकर में भी हाथी को दर्शाया जाता है। उपयुक्त कथनों से ही स्पष्ट है कि हाथी समस्त पशुओ में शिष्ट,आदर पल का पात्र है। इसलिये शुभ मंगल अनुष्ठानों में उसकी उपस्थिति श्रेष्ठ शुभ मानी जाती है। इसलिये ही जैन परंपरा में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के साथ गजरथ अनुष्ठान भी जुड़ गया। रथोत्सव की परंपरा अत्यंत प्राचीन है और सभी धर्म परंपराओं में समाहत है मान्य है।
अष्टानिक पत्रों में आयोजित पूजन करने के बाद रथोत्सव करने के कथन प्रथमानुयोग के ग्रंथों में अनेक स्थलों पर मिलते हैं। इस रथोत्सव की परंपरा में कलिंग नरेश सम्राट ऐलखारवेल का भी उल्लेख आता है, ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में इस देश में ऐलखारवेल नामक राजा अपने भूजविक्रम प्रताप और धर्म कार्य के लिये प्रसिद्ध था। यह जैन धर्म का उपासक था उसने सारे भारत की दिग्विजय की थी। वह मगध के नरेश वहसति मित्र को हराकर क्षत्र भ्रंगारादि के साथ कलिंग जिन ऋषभदेव की मूर्ति वापस कलिंग लाए थे। जिसे नंद सम्राट कलिंग पाटलिपुत्र ले गये